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भारत के विधि आयोग ने अभिभावकत्व और संरक्षण कानून पर रिपोर्ट सौंपी, संरक्षण के मामलों में बच्चों के कल्याण पर ध्यान केन्द्रित करना रिपोर्ट का उद्देश्य

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नई दिल्ली: भारत के विधि आयोग ने आज ‘भारत में अभिभावकत्व और संरक्षण कानूनों में सुधार’ पर अपनी रिपोर्ट संख्या 257 पेश की। रिपोर्ट विधि और न्याय मंत्रालय को पेश की गई। रिपोर्ट में संरक्षण और अभिभावकत्व के मामले में बच्चों के कल्याण से जुड़े मौजूदा कानूनों में संशोधन सुझाए गए हैं। साथ ही कुछ मामलों में संयुक्त संरक्षण की अवधारणा को विकल्प के तौर पर प्रस्तावित किया गया है।

      तलाक की कार्यवाही और परिवार टूटने की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ता है। अक्सर माता-पिता तलाक के दौरान सौदेबाजी में मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में वह बच्चों की ओर से महसूस की जाने वाली भावनाओं और सामाजिक, मानसिक,उतार-चढ़ाव का ख्याल नहीं रखते। आयोग का मानना है कि कानून में कुछ परिवर्तनों के द्वारा असंतुलन की स्थिति को कुछ हद तक सुधारा जा सकता है। कानून के जरिये कोर्ट को ऐसी पहल करने का काम सौंपा गया है, जिससे हर मामले में बच्चों का कल्याण सुनिश्चित हो सके।

      भारत में अदालतों ने कल्याण के सिद्दांत को मान्यता दी है। लेकिन कानून के कई पहलू और कानूनी ढांचे में इसके मुताबिक बदलाव नहीं हो पाया है। तलाक और परिवार टूटने के मामलों मे अदालत बच्चों का संरक्षण या पिता के हाथ सौंप देती है। लेकिन बच्चों के कल्याण के लिए संयुक्त संरक्षण पर विचार नहीं किया जाता है।

      कानून मे असमानता की वजह से इस संबंध में होने वाले अदालती फैसलों की समस्याएं बढ़ जाती हैं। उदाहरण के लिए हिंदू नाबालिग और अभिभावक कानून 1956 में बच्चों के कल्याण को सर्वोपरि माना गया है। लेकिन अभिभावक और उनके बच्चों से जुड़े कानून, 1890 (गार्जियन एंड वार्ड्स,एक्ट 1890) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इसी तरह 1956 के कानून में माता को पिता के समान अभिभावक नहीं माना गया है। इसके अलावा संरक्षण की लड़ाइयां सबसे ज्यादा अदालतों लड़ी जाती हैं क्योंकि इस बात पर सहमति या समझ नहीं बन पाती कि आखिर बच्चों का कल्याण है क्या। ऐसे में बच्चों का कल्याण सुनिश्चित करना असंभव हो जाता है। कानूनी ढांचे के तहत भी प्रक्रिया और तरीकों से संबंधित ऐसा कोई निर्देश नहीं है, जिनसे संरक्षण के मामलों को सुलझाया जा सके।

यही वजह है कि विधि आयोग ने संरक्षण अभिभावकत्व से जुड़े कानूनों की इस रिपोर्ट में समीक्षा की है और गार्जियन एंड वार्ड्स,एक्ट 1890 और हिंदू नाबालिग और अभिभावकत्व कानून 1956 कई संशोधन सुझाएं हैं। ज्यादातर संशोधन गार्जियन एंड वार्ड्स,एक्ट 1890 में सुझाएं गये हैं। इसमें संरक्षण देखभाल से संबंधित समझौतों से जुड़ा एक नया अध्याय प्रस्तावित किया गया है। एक धर्मनिरपेक्ष कानून होने की वजह से पर्सनल लॉ समेत सभी तरह के संरक्षण की सभी कानूनी प्रक्रियाओं में लागू होगा।

नये अध्याय में सभी मामलों में बच्चों के कल्याण के उद्देश्य को निर्देशक तत्व माना गया है। इसमें पहली बार भारत में संयुक्त संरक्षण और बाल कल्याण के विभिन्न मामलों मसलन बच्चों को मदद, मध्यस्थता प्रक्रिया, लालन पालन से जुड़ी योजना और नाना-नानी या दादा-दादी के पास बच्चों के रहने से जुड़े मामलों जैसी अवधारणाएँ शामिल की गई हैं।

नये कानून के लिए सुझाई गई सिफारिशें इस तरह से हैं-

1. कल्याण का सिद्दांत कानून के मसौदे में गार्जियन एंड वार्ड्स,एक्ट 1890 में मौजूद कल्याण के सिद्दांत को मजबूती दी गई है। अभिभावकत्व और संरक्षण से जुड़े फैसलों में इस पर लगातार जोर दिया गया है।

  1. प्राथमिकता हटी- कानून के मसौदे में हिंदू कानून के तहत पिता को बच्चों का स्वाभाविक अभिभावक मान लेने की प्राथमिकता को खत्म कर दिया गया है और अभिभावक और संरक्षण के मामलों में माता और पिता को समान कानूनी दर्जा दिया गया है।
  2. संयुक्त संरक्षण- मसौदे में अदालतों को यह अधिकार दिया गया है कि बच्चों के कल्याण की बेहतर स्थिति को देखते हुए संरक्षण माता और पिता दोनों को दिया जाए या फिर संरक्षण किसी एक को दिया जाए और देखभाल का अधिकार दूसरे को सौंपा जाए।
  3. मध्यस्थता- संरक्षण के मामलों में संबंधित पक्षों को अनुभवी लोगों द्वारा सुझाए गये समय मध्यस्थता को स्वीकारना होगा। यह न सिर्फ बच्चों और उनके माता-पिता के लिए बेहतर नतीजों को प्रोत्साहित करेगा बल्कि अदालत की व्यवस्था पर पहले से भारी बोझ को भी कम करेगा।
  4. बच्चे के लिए वित्तीय मदद- मसौदे में अदालत को यह अधिकार दिया गया है कि वह बच्चे के लालन-पालन में होने वाले मोटे खर्च को निर्धारित कर सके। इस खर्च को तय करते समय बच्चे की रहन-सहन की स्तर को और माता-पिता की वित्तीय संसाधनों को ध्यान में रखें। बच्चे के लिए यह मदद 18 साल तक की उम्र तक जारी रहनी चाहिए। हालांकि मानसिक और शारीरिक निशक्तता के मामले में उम्र सीमा 25 साल तक या इससे ज्यादा तक की जा सकती है।
  5. दिशा-निर्देश- कानून के मसौदे में मदद करने वाली अदालतों, अभिभावकों और संबंधित बच्चों के लिए दिशा-निर्देश शामिल हैं ताकि बच्चों के कल्याण के लिए सर्वोश्रेष्ठ व्यवस्था को अपना सकें।

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