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मीडिया की स्वतंत्रता के ज्वलंत सवाल

देश-विदेश

पिछले कुछ सालों से हमारा देश एक अजीब दौर से गुजर रहा है. ऐसा लगता है कि बस अब जल्दी जनता के अच्छे दिन आने वाले हैं लेकिन आ ही नहीं रहे. जब तक एक नारा ख़त्म होता है, एक योजना आती है, तभी कुछ दिनों बाद कुछ और हो जाता है. जनता फिर पागलों की तरह उस फालतू की बहस में उलझ कर रह जाती है. हिटलर के पश्चात यानि लगभग 80 साल बाद एक बार फिर सत्ता का प्रोपेगेंडा मंत्रालय लोकतंत्र पर हावी नजर आता है. दुर्भाग्य की बात ये है की तब सब कुछ सरकार की और से होता था, आज सरकार तो कर ही रही है लेकिन सरकारों ने जनता के बीच प्रोपेगेंडा एजेंटो की गुप्त फ़ौज तैयार कर दी है. आधुनिक संचार प्रणाली का सत्ता हित में या विरोधियों को चित करने में बखूबी खुलकर प्रयोग किया जा रहा है.

जनता बेरोजगार ख़ाली हाथ बैठी है. पहले तास खेलकर वक़्त गुजरता था, अब सोशल मीडिया से मजेदार वक़्त कट रहा है. पहले मर्द बदनाम होते थे आज औरतें भी पीछे नहीं रही. पडोष के देश चीन के लोगों के पास काम करने से फुर्सत नहीं और अपने देश मे लोग बाबाओं के पीछे पागल हुए जा रहे, भजन कीर्तन, रेलिया, हड़ताल, तोड़ फोड़, गाय गणेश, हिन्दू मुसलमान आदि में अस्त ब्यस्त और मस्त हैं. देश की चिंता केवल सोशल मीडिया पर चल रही है. नेता एक बार चुनने के बाद सांड बन जाता है, कार्यपालिका फुल चोर बन जाती है और न्याय पालिका सरकार चलाने लगती है. ऐसे में जनता के पास सबसे बड़ा हथियार मीडिया होता है, जब यह भी दरबारी हो जाता है तो समझो लोकतंत्र अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. जिस तरह मीडिया प्रचार के जहाज पर बैठकर मोदी की सरकार सत्ता में आयी, उसी प्रकार यही मीडिया अति प्रचार के जहाज को धीरे धीरे रनवे पर उतरने लगी है. कम्युनिस्ट को दुनिया में और भारतीय कांग्रेस पार्टी को उतरने में लम्बा समय लगा, लेकिन इन्टरनेट के जमाने मे अब पांच साल का वक़्त बहुत बड़ा होता है.

खैर मीडिया की यह चर्चा इसलिए सामने आ गयी कि अपने पहाड़ी पड़ोसी नेपाल ने 19 अगस्त 2018 को आपराधिक संहिता कानून में गोपनीयता सुरक्षा के नाम पर कई नए अनुच्छेद मीडिया व पत्रकारों के लिये लागू कर दिये हैं. अनुच्छेद 293 किसी भी निजी बातचीत को बिना सहमती के रिकॉर्ड करने या सुनने पर प्रतिबन्ध लगाता है. अनुच्छेद 294 गोपनीय जानकारी साझा करने व अनुच्छेद 295 सार्वजनिक स्थलों के अलावा कहीं पर भी बिना पूर्व अनुमति के फोटोग्राफी पर प्रतिबन्ध लगाता है. इसी प्रकार अनुच्छेद 306.2 सी में ब्यंग को बैयक्तिक अनादर मानने का भी प्रावधान है. उपरोक्त कानून नेपाल की मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है. कई तरह की समीक्षाएं हो रही है. कानून में जेल तक का प्रावधान तक है कहा जा रहा हैं कि इससे प्रेस की आजादी पर खतरा सुरु हो गया है खासकर खोजी पत्रकारों के लिए काम करना मुस्किल होने की संभावना ब्यक्त की जा रही है. अभी कुछ महिने पहले ही विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार नेपाल 180 देशों में 106 स्थान पर था जबकि भारत 138, पाकिस्तान 139, बांग्लादेश 146 व चीन 176 स्थान पर था. उलेखनीय है की नेपाल को राजशाही से मुक्त करवाने में वहां की प्रेस ने बड़ी भूमिका निभाई थी.

नेपाल के उपरोक्त नये कानून भारत के लिये एक नयी नजीर लेकर आया है. अपने देश में भी ऐसे प्रतिबंधों के कई प्रयास हुए लेकिन वह विफल साबित हुए है. सोशल मीडिया पर बैन लगाने का सरकारी एजेंडा था, लेकिन सरकार हिम्मत नहीं कर पायी. आज देश के प्रमुख और जाने माने पत्रकारों ने मुख्यधारा के पत्रों व चैनलों को छोड़कर सोशल मीडिया जिसे स्वतंत्र मीडिया कहा जा रहा है उसे अपना लिया हैं. सरकारों के लिये यह मूव न उगलते बन रहा न थूकते बन रहा. इसीलिये अब हर पार्टी ने अपनी सोशल मीडिया फ़ौज तैयार कर ली है. भाजपा इस काम मैं सबसे आगे चल रही है. नेपाल में अब इन कानूनों को लेकर क्या होने वाला है यह तो वक़्त बतायेगा, लेकिन भारत की सत्ताधारी पार्टी के सामने एक नया उपाय तो आ ही गया है. मुझे नहीं लगता मोदी जी इस बर्र के छत्ते से चुनावी साल में छेड़ाखानी करेंगे, लेकिन अगर वह पुनः सत्ता में वापस लौटते हैं तो नेपाल जैसा ही कानून वे लागू कर सकते है, जिसके लिये वे काफी समय से छटपटा भी रहे है क्यूंकि सोशल मीडिया मुखर होकर मोदी की नीतियों पर देश भर में नयी बहस छेड़ चुका है और यह बहस अगले कुछ दिनों में बहुत तेजी से बढने वाली है. संयोग देखिये कि जिस सोशल मीडिया ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की भूमिका रची वही आज उनके लिये सबसे बड़ी खतरे की घंटी बनने जा रही है. जिस तरह भाजपा का सोशल मीडिया विंग हर बात पर अनावश्यक अति सक्रियता दिखा रहा है उससे जनता में उल्टा सन्देश जा रहा हैं और  सरकार के अच्छे कार्य भी अनावश्यक प्रचार में दब जा रहे है. भाजपा के मीडिया विशेषग्यो को पता ही होगा कि सरकारी योजनाओं का अधिकांस प्रचार आकाशवाणी व दूरदर्शन के माध्यम से होता रहा है, वो तो भला हो जो मोदी जी ने अपने मन की बात से रेडियो को लोकप्रिय बनाने का बड़ा काम किया. सोशल मीडिया के जमाने में फिर भी कितने लोग इन्हें देख सुन रहे हैं. अखबार, पत्रिकाएं, होर्डिंग्स व सोशल मीडिया पोर्टल ही है जो थोड़ा बहुत योजनाओं को जनता तक पंहुचा पा रहा होगा. लेकिन आज सोशल मीडिया से बड़ा प्रचार तंत्र फिलहाल कोई नहीं है वहाँ सही मायने में सरकार की नीतियों, योजनाओं पर चर्चा परिचर्चा के बजाय कुछ और ही तस्वीर नजर आ रही है. भाजपा के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं की राजनीती अपने बड़े नेताओं के साथ सेल्फी पोस्ट करने तक सिमित हो चुकी है, कार्यकर्त्ता जनता के साथ कहीं खड़े नज़र नहीं आ रहे, न वे सरकार की योजनाओं से सम्बंधित कोई पोस्ट शेयर कर रहे है, हाँ वे कुछ तो जरुर कर रहे हैं? लेकिन उससे नुक्सान ज्यादा फायदा कम हो रहा है. यही हाल अन्य पार्टियों के भी हैं. आज जनता को कांग्रेस, भाजपा या किसी अन्य दलों में कोई अंतर नहीं दिख रहा है.

अमेरिका से एक खबर है कि प्रेस की आजादी को लेकर वहां की प्रेस ने एक साथ एक दिन 300 से भी ज्यादा सम्पादकीय लिखे. यह ट्रंप के साथ मोदी के लिये भी चिंता की बात होगी. फिलहाल आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर रणनीतिक चुप्पी ओढ़ी हुयी है यह एक नया रहस्य लग रहा है.

विशेषकर कांग्रेस

जयप्रकाश पंवार “जेपी”

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