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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के साहित्यिक कार्यों के स्वर्ण जयंती समारोह में प्रधानमंत्री जी के भाषण

देश-विदेश

नई दिल्ली: ये मेरा सौभाग्‍य है कि आज शब्‍द-ब्रहम की इस उपासना के पर्व पर मुझे भी पुजारी बन करके, शरीक होने का आप लोगों ने सौभाग्‍य दिया है। हमारे यहां शब्‍द को ब्रहम माना है। शब्‍द के सामर्थ्‍य को ईश्‍वर की बराबरी के रूप में स्‍वीकार किया गया है।
किसी रचना के 50 वर्ष मनाना, वो इसलिए नहीं मना जाते कि रचना को 50 साल हो गये हैं, लेकिन 50 साल के बाद भी उस रचना ने हमें जिंदा रखा है। 50 साल के बाद उस रचना ने हमें प्रेरणा दी है और 50 साल के बाद भी हम आने वाले युग को उसी नज़रिये से देखने के लिए मजबूर होते हैं, तब जा करके उसका सम्‍मान होता है।

जिनको आज के युग में हम साहित्‍यकार कहते हैं, क्‍योंकि वे साहित्‍य की रचना करते हैं, लेकिन दरअसल, वे ऋषि-तुल्‍य जीवन होते हैं, जो हम वेद और उपनिषद में ऋषियों के विषयों में पढ़ते हैं, वे उस युग के ऋषि होते हैं और ऋषि के नाते दृष्‍टा होते हैं, वो समाज को भली-भांति देखते भी हैं, तोलते भी हैं, तराशते भी हैं और हमें उसी में से रास्‍ता खोज करके भी देते हैं।

दिनकर जी का पूरा साहित्‍य खेत और खलिहान से निकला है। गांव और गरीब से निकला है। और बहुत सी साहित्यिक-रचना ऐसी होती है जो किसी न किसी को तो स्‍पर्श करती है, कभी कोई युवा को स्‍पर्श करे, कभी बड़ों को स्‍पर्श करे, कभी पुरूष को स्‍पर्श करे, कभी नारी को स्‍पर्श करे, कभी किसी भू-भाग को, किसी घटना को स्‍पर्श करे। लेकिन बहुत कम ऐसी रचनाएं होती हैं, जो अबाल-वृद्ध सबको स्‍पर्श करती हो। जो कल, आज और आने वाली कल को भी स्‍पर्श करती है। वो न सिर्फ उसको पढ़ने वाले को स्‍पर्श करती है, लेकिन उसकी गूंज आने वाली पीढि़यों के लिए भी स्‍पर्श करने का सामर्थ्‍य रखती है। दिनकर जी कि ये सौगात, हमें वो ताकत देती है।

जय प्रकाश नारायण जी, जिन्‍होंने इस देश को आंदोलित किया है, उनकी उम्र को और युवा पीढ़ी के बीच बहुत फासला था, लेकिन जयप्रकाश जी की उम्र और युवा पीढ़ी की आंदोलन की शक्ति इसमें सेतु जोड़ने का काम दिनकर जी की कविताएं करती थीं। हर किसी को मालूम है भ्रष्‍टाचार के खिलाफ जब लड़ाई चली, तो यही तो दिनकर जी की कविता थी, जो अभी प्रसून जी गा रहे थे, वो ही तो कविता थी जो नौजवानों को जगाती थी, पूरे देश को उसने जगा दिया था और उस अर्थ में वे समाज को हर बार चुप बैठने नहीं देते थे। और जब तक समाज सोया है वो चैन से सो नहीं सकते थे। वे समाज को जगाये रखना चाहते थे, उसकी चेतना को, उसके अंर्तमन को आंदोलित करने के लिए, वे सिर्फ, अपने मनोभावों की अभिव्‍यक्ति कर-करके मुक्ति नहीं अनुभव करते थे। वे चाहते थे जो भीतर उनके आग है, वो आग चहुं ओर पहुंचे और वो ये नहीं चाहते थे कि वो आग जला दें, वो चाहते थे वो आग एक रोशनी बने, जो आने वाले रास्‍तों के लिए पथदर्शक बने। ये बहुत कम होता है।

मैं सरस्‍वती का पुजारी हूं और इसलिए शब्‍द के सामर्थ्‍य को मैं अनुभव करता हूं, कोई शब्‍द किस प्रकार से जीवन को बदल देता है, उस ताकत को मैं भली-भांति अनुभव कर सकता हूं। एक पुजारी के नाते मुझे मालूम है, एक उपासक के नाते मुझे मालूम है, और उस अर्थ में दिनकर जी ने अनमोल…अनमोल हमें, सौगात दी है, इस सौगात को आने वाले समय में, हमारी नई पीढ़ी को हम कैसे पहुंचाएं?

कभी-कभार हम शायद इस देश में हरेक पीढ़ी के हजारों ऐेसे कवि होंगे या साहित्‍य-प्रेमी होंगे। हजारों की तादाद में होंगे, ऐसा मैं मानता हूं। जो दिनकर जी की कविताएं मुखपाठ लगातार बोल सकते हैं, बोलते होंगे। ये छोटी बात नहीं है। जैसे कुछ लोग रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद उसकी श्‍लोक वगैरह जिस प्रकार से मुखपाठ बोलते हैं ऐसे दिनकर जी के शब्‍दों के पीछे रमण हुए हजारों लोग मिलेंगे। और उनको उसी में आनंद आता है उनको लगता है कि मैं दिनकर जी की बात आवाज पहुंचाऊंगा। मेरी बात लोग माने या न माने, दिनकर जी की बात दुनिया मानेगी।

और दिनकर जी को “पशुराम की प्रतीक्षा” थी और दिनकर जी अपने तराजू से भारत की सांस्‍कृतिक उतार-चढ़ाव को जिस प्रकार से उन्‍होंने शब्‍दों में बद्ध किया है। वे इसमें इतिहास भी है, इसमें सांस्‍कृतिक संवेदना भी है, और समय-समय पर भारत की दिखाई हुई विशालता, हर चीज को अपने में समेटने का सामर्थ्‍य, दिनकर जी ने जिस प्रकार से अनुभव किया है जो हर पल दिखाई देता है। और प्रकार से दिनकर जी के माध्‍यम से भारत को समझने की खिड़की हम खोल सकते हैं। अगर हममें सामर्थ्‍य हो तो हम द्वार भी खोल सकते हैं। लेकिन जरा भी सामर्थ्‍य न हो, तो खिड़की तो जरूर खोल सकते हैं। ये काम दिनकर जी हमारे बीच करके गये हैं।

दिनकर जी ने हमें कुछ कहा भी है, लेकिन शायद वो बातें भूलना अच्‍छा लगता है, इसलिए लोग भूल जाते हैं। एक बार, कुछ बुराईयां समाज में आती रहती हैं, हर बार आती रहती हैं। करीब हर प्रकार के अलग-अलग आती रहती हैं। लेकिन किसी ने जाति के आधार पर दिनकर जी के निकट जाने का प्रयास किया है, उनको लगा कि मैं आप की बिरादरी का हूं, आपकी जाति का हूं, तो आप मेरा हाथ पकड़ लीजिए अच्‍छा होगा। और ऐसा रहता है समाज में, लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी दिनकर जी की सोच कितनी सटीक थी वरना, उस माहौल में कोई भी फिसल सकता है। और वो स्‍वयं राज्‍यसभा में थे राजनीतिक को निकटता से देखते थे, अनुभव करते थे, लेकिन उस माहौल से अपने आप को परे रखते हुए, उस व्‍यक्ति को उन्‍होंने मार्च 1961 को चिट्ठी लिखी थी। उस चिट्ठी में जो लिखा गया है बिहार को सुधारने का सबसे अच्‍छा रास्‍ता ये है, कि लोग जातिओं को भूलकर गुणवान के आदर में एक हों। याद रखिए कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज्‍य नहीं चलता। वो बहुतों के समर्थन से चलता है, यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठें, तो बिहार का सार्वजनिक जीवन गल जाएगा। मार्च 1961 में लिखी हुई ये चिट्ठी, आज बिहार के लिए…आज भी उतना ही जागृत संदेश है। ये किसी राजनीति से परिचित के शब्‍द नहीं है, ये किसी शब्‍द-साधक के शब्‍द नहीं है, ये किसी साहित्‍य में रूचि रखने वाले सृजक के शब्‍द नहीं है, एक ऋषि तुल्‍य के शब्‍द हैं जिसको आने वाले कल दिखाई देती है और जिसके दिल में बिहार की आने वाली कल की चिंता सवार है और तब जाकर शब्‍द, अपने ही समाज के व्‍यक्ति को स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहने की ताकत रखता है।

बिहार को आगे ले जाना है, बिहार को आगे बढ़ाना है और ये बात मान कर चलिए हिंदुस्‍तान का पूर्वी हिस्‍सा अगर आगे नहीं बढ़ेगा, तो ये भारत माता कभी आगे नहीं बढ सकती। भारत का पश्चिमी छोर, वहां कितनी ही लक्ष्‍मी की वर्षा क्‍यों न होती हो, लेकिन पूरब से सरस्‍वती के मेल नहीं होता, तो मेरी पूरी भारत माता…मेरी पूरी भारत माता उजागर नहीं हो सकती और इसलिए हमारा सपना है कि पूर्वी हिन्‍दुस्‍तान कम से कम पश्चिम की बराबरी में तो आ जाएं। कोई कारण नहीं पीछे रहे। अगर बिहार आगे बढ़ता है, बंगाल आगे बढ़ता है, असम आगे बढ़ता है, पूर्वी उत्‍तर प्रदेश आगे बढ़ता है, नार्थ-ईस्‍ट आगे बढ़ता है, सारी दुनिया देखती रह जाएगी, हिन्‍दुस्‍तान किस तरह आगे बढ़ रहा है।

दिनकर जी का भी सपना था बिहार आगे बढ़े, बिहार तेजस्‍वी, ओजस्‍वी, ये बिहार, सपन्‍न भी हो। बिहार को तेज और ओज मिले किसी से किराए पर लेने की जरूरत नहीं। उसके पास है उसे संपन्‍नता के अवसर चाहिए, उसको आगे बढ़ने का अवसर चाहिए और बिहार में वो ताकत है, अगर एक बार अवसर मिल गया, तो बिहार औरों को पीछे छोड़कर आगे निकल जाएगा।

हम दिनकर जी के सपनों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और उनकी साहित्‍य रचना की 50 साल की यात्रा आज भी हमें कुछ करने की प्रेरणा देती है, सिर्फ गीत गुनगुनाने की नहीं। हमें कुछ कर दिखलाने की प्रेरणा देती है और इसलिए आज दिनकर जी को स्‍मरण करते हुए उनकी साहित्‍य रचना का स्‍मरण करते हुए इस सभागृह में हम फिर से एक बार अपने आप को संकल्‍पबद्ध करने के अवसर के रूप में उसे देंखे। और उस संकल्‍प की पूर्ति के लिए दिनकर जी के आर्शीवाद हम सब पर बने रहे और बिहार के सपनों को पूरा करने के लिए सामर्थ्‍य के साथ हम आगे बढ़ें।

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