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उत्तर प्रदेश में सौभाग्य और उज्जवला का जमीन पर असर है, मगर सामथ्र्यता और विश्वसनीयता अभी भी मुख्य चुनौती: सीईईडब्ल्यू अध्ययन

उत्तर प्रदेश

लखनऊ: उत्तर प्रदेश में 59 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने प्रकाश के प्रमुख स्रोत के रूप में ग्रिड बिजली पर भरोसा किया है, जो 2015 के मुकाबले लगभग तीन गुना वृद्धि है। काउसिंल आन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) ने पिछले सप्ताह बहुआयामी ऊर्जा उपलब्धता सर्वे के दूसरे चक्र से प्राप्त जानकारियां प्रकाशित कीैं, जिसके अनुसार पिछले तीन वर्षों में, प्रकाश के प्रमुख स्रोत के रूप में मिट्टीतेल का उपयोग करने वाले ग्रामीण परिवारों का अनुपात भी 72 प्रतिशत से घटकर 30 प्रतिशत हो गया है। इसके अलावा, साल 2018 में राज्य में 64 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने भोजन पकाने के लिए एलपीजी गैस का उपयोग किया जो 2015 में 33 प्रतिशत था। भोजन पकाने के प्रमुर्ख इंधन के रूप में एलपीजी पर भरोसा करने वाले ग्रामीण परिवारों की संख्या 2015 में 17 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 37 प्रतिशत हो गई है। भोजन पकाने के लिए बायोमास, कृषि अवशेष तथा गोबर के उपलों जैसे पारंपरिक ईंधनों के मुकाबले एलपीजी का इस्तेमाल, उत्पन्न आंतरिक वायु प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्य जोखिमों को घटाता है। हाल के सालों में सौभाग्य और उज्जवला जैसी सरकारी योजनाओं ने राज्य में ऊर्जा उपलब्धता सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

शक्ति सस्टेनेबल एनर्जी फाऊंडेशन (एसएसईएफ) और नेशनल युनिवर्सिटी आफ सिंगापुर (एनयूएस) द्वारा सहयोग प्राप्त, सीईईडब्ल्यू के स्वतंत्र अध्ययन – द एक्सेस टू क्लीन कुुकिंग एनर्जी एंड इलेक्ट्रिसिटी- सर्वे आफ स्टेट्स (एक्सेस) में भारत के छह प्रमुख ऊर्जा उपलब्धता से अभावित राज्यों के 54 जिलों और 756 गांवों में 9000 से अधिक परिवारों को कवर किया गया। साल 2015 में कराए गए एक्सेस सर्वे के पहले राऊंड की समीक्षा के तहत काउंसिल ने साल 2018 के मध्य में छह राज्यों में उन्हीं परिवारों से दोबारा संपर्क किया ताकि बीते तीन वर्षों में उनकी ऊर्जा उपलब्धता स्थिति में बदलाव का मूल्यांकन कर सके। उत्तर प्रदेश में समूचे प्रदेश के 18 जिलों के 250 से अधिक गांवों में 3000 से अधिक परिवारों का सर्वे किया गया।

उत्तर प्रदेश के विशाल भौगोलिक क्षेत्र और इसके इलाकों की विविधता के कारण ऊर्जा उपलब्धता की स्थिति में महत्वपूर्ण विविधताएं पाई गईं। मुजफ्फरनगर जिले में 95 प्रतिशत की तुलना में, बांदा जिले में केवल 20 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने प्रकाश के प्रमुख स्रोत के रूप में ग्रिड बिजली पर भरोसा जताया है। इसके अलावा, वाराणसी जिले में 66 प्रतिशत की तुलना में, अलीगढ़ जिले में केवल 28 प्रतिशत विद्युतीकृत ग्रामीण परिवार मीटरयुक्त थे। सोलर होम सिस्टम्स और लालटेनों के इस्तेमाल में भी घोर असमानता थी, क्योंकि सीतापुर में 30 प्रतिशत के विपरीत, मुजफ्फरनगर जिले में केवल दो प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने इन्हें उपयोग करने की बात कही।

सीईईडब्ल्यू के सीनियर प्रोग्राम लीड, और अध्ययन के प्रमुख लेखक, अभिषेक जैन ने कहा कि एक्सेस ग्रामीण उत्तर प्रदेश में ऊर्जा उपलब्धता के मूल्यांकन की एक गहरी समझ प्रदान करता है। हालांकि सौभाग्य योजना परिवारों के लिए कनेक्शन की सुविधा सुनिश्चित करेगी परन्तु उत्तर प्रदेश की कंपनियांे को लो-वोल्टेज और दिन भर बिजली कटने की समस्याओं से निपटने पर ध्यान देना चाहिए। चालीस प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकृत परिवारों के बिजली आपूर्ति के लिए कुछ भी भुगतान नहीं करने से राज्य को बिलिंग तथा संग्रहण प्रयासों के साथ मीटर लगाने की दरें सुधारने की आवश्यकता है।

सीईईडब्ल्यू की प्रोग्राम लीड, सस्मिता पटनायक ने जोड़ा, ’’हालांकि पिछले तीन सालों में उत्तर प्रदेश में खाना पकाने के प्रमुख स्रोत के रूप में एलपीजी कनेक्शन और उनके इस्तेमाल की उपलब्धता उल्लेखनीय ढंग से सुधरी है, मगर सभी परिवारों के लिए होम डिलीवरी का प्रस्तावित लक्ष्य हासिल करने के लिए एलपीजी वितरण नेटवर्क को और सशक्त बनाने की आवश्यकता है।पारंपरिक ईंधनों के साथ एलपीजी भंडार की 93 फीसदी से अधिक परिवारों द्वारा रेखांकित चिंता को ध्यान में रखते हुए लक्षित रियायतों के जरिए एलपीजी की सामथ्र्यता पर भी विचार करने की आवश्यकता है।’’

बिजली की उपलब्धता की स्थिति

द काउंसिल के अध्ययन ने पाया कि पिछले तीन सालों में उत्तर प्रदेश में लगभग 30 फीसदी ग्रामीण आबादी ने अनुपलब्धता या अत्यंत बदतर उपलब्धता से आगे बढ़कर, बेहतर बिजली उपलब्धता हासिल की है। हालांकि 42 फीसदी ग्रामीण परिवार के पास अभी भी कोई बिजली कनेक्शन नहीं था या उनके पास अत्यंत बदतर बिजली उपलब्धता थी। अध्ययन ने यह भी पाया कि राज्य में लगभग 20 फीसदी गैरविद्युतीकृत परिवारगैरविद्युतीकृत रहना ही पसंद करेंगे भले ही उन्हें बगैर किसी अग्रिम लागत के कनेक्शन मिले हों। मुफ्त कनेक्शन से इंकार करने के कारणों में, नियमित बिजली खपत करने में असमर्थता, अनियमित एकमुश्त बिलों में अधिकतम भुगतान करने की अनिच्छा, अवैध कनेक्शन मिलना या गैरविश्वसनीय बिजली आपूर्ति, शामिल हो सकते हैं।

इसके अलावा, बिजली आपूर्ति की अवधि में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है जो 2015 में दिन में 8 घंटे थी, और जो 2018 में बढ़कर दिन में 12 घंटे हो गई। 2015 में 38 फीसदी से बढ़कर, 2018 में 68 फीसदी विद्युतीकृत परिवारों ने सूर्यास्त और मध्यरात्रि के बीच तीन से चार घंटे की बिजली आपूर्ति प्राप्त की है।

राज्य में ग्रामीण परिवारों के लिए बुनियादी बिजली की सामथ्र्यता एक महत्वपूर्ण मसले के रूप में उभरी है। इसे परिवारों को गैरमीटरयुक्त से मीटरयुक्त बनाकर महत्वपूर्ण ढंग से निपटाया जा सकता है।

स्वच्छ रसोई ऊर्जा की उपलब्धता की स्थिति

उत्तर प्रदेश में न सिर्फ एलपीजी कनेक्शनों में, बल्कि एलपीजी का प्रमुख रसोई ईंधन के रूप में इस्तेमाल भी उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है और 2015 मंे 17 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 37 प्रतिशत हो गया है। द काउंसिल के अध्ययन में पाया गया कि राज्य में ग्रामीण परिवारों का अनुपात, जिन्हें उनके घर पर एलपीजी की डिलीवरी प्राप्त होती है, 2015 में 9 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 29 प्रतिशत हो गया है। जिन परिवारों को होम डिलीवरी नहीं प्राप्त होती है, उन्हें एलपीजी सिलेंडर लेने के लिए, 2015 में 7 किमी जाना पड़ता था जो अब घटकर पांच किमी हो गया है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में वितरण व्यवस्था की बेहतर उपस्थिति दर्शाता है।

द काउंसिल के अध्ययन के अनुसार, बगैर एलपीजी कनेक्शन वाले परिवारों में से, 83 फीसदी ने सिलंेडर कनेक्शन लेने में दिलचस्पी दिखाई है। हालांकि, एलपीजी कनेक्शन लेने में परिवारों के लिए उच्च स्थापन लागत और उच्च पुनरावर्ती लागतें महत्वपूर्ण बाधाएं बनी रहीं।

उत्तर प्रदेश में एलपीजी की उपलब्धता की कठिनाइयों के बावजूद, इसके अधिक उपयोग का संभावित कारण, राज्य में बायोमास का अधिक महंगा होना है। सर्वे किए गए छह राज्यों में से, यूपी में मुफ्त बायोमास पर पूर्णतया भरोसा करने वाले ग्रामीण परिवारों का अनुपात न्यूनतम था।

द काउंसिल के अध्ययन में यूपी के अलीगढ़, आजमगढ़, बांदा, बरेली, बिजनौर, बुलंद शहर, गांेडा, गोरखपुर, झांसी, कन्नौज, मैनपुरी, मिर्जापुर और मुजफ्फरनगर जिलों को कवर किया गया।

सीईईडब्ल्यू के बारे में

द काउंसिल आन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर ( सीईईडब्ल्यू ) दक्षिण एशिया के प्रमुख गैर-लाभकारी नीति शोध संस्थानों में से एक है। काउंसिल समग्रतापूर्ण विश्लेषण, तथा संसाधनों के उपयोग, पुर्नउपयोग और दुरुपयोग के संबंध में बदलाव करने तथा रणनीतिक पहुंच को समझाने हेतु डाटा का उपयोग करती है। काउंसिल एक एकीकृत तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एकाग्र नजरिए के जरिए दबावकारी वैश्विक चुनौतियों को संबोधित करती है। यह अपने उच्चस्तरीय शोध की स्वतंत्रता को लेकर स्वयं पर गर्व करती है, सरकारी व निजी संस्थानों के साथ साझीदारियां विकसित करती है, और व्यापक जन के साथ जुड़ाव रखती है।

2018 में, सीईईडब्ल्यू एक बार पुनः ‘2017 ग्लोबल गो टू थिंक टैंक इंडेक्स रिपोर्ट’ में नौ श्रेणियों का व्यापक हिस्सा बनी, जिसमें लगातार पांच वर्ष के लिए पांच मिलियन डॉलर से कम के सालाना परिचालन बजट के साथ वैश्विक स्तर पर 14वें स्थान के साथ दक्षिण एशिया के शीर्ष थिंक टैंक (वैश्विक स्तर पर 14वां) का दर्जा हासिल करना शामिल है। 2016 में, सीईईडब्ल्यू को भारत में दूसरा, बाहर यूरोप और उत्तर अमरीका में चैथा, तथा आईसीसीजी क्लाइमेट थिंक टैंक की मानकीकृत रैंकिंग के अनुसार 240 थिंक टैंकों में वैश्विक स्तर पर बीसवां स्थान भी हासिल हुआ। 2013 और 2014 में, आईसीसीजी मानकीकृत रैंकिंग के अनुसार, सीईईडब्ल्यू को भारत के शीर्ष क्लाइमेट चेंज थिंक टैंक का दर्जा हासिल हुआ था।

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