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Literary writings must foster harmony, love and social equality in society: Vice President

देश-विदेश

New Delhi: The Vice President of India, Shri. M. Venkaiah Naidu has called on the literary writers to write on social issues particularly to foster harmony, love and social equality in the society.  He was addressing the gathering after receiving the first copy of the book “SAMEEPYA” authored by Shri. Prem Narain, a retired IAS officer and currently Member, National Consumer Disputes Redressal Commission, here today.

The Vice President said that every human being must always be forward-thinking and diligent, only then the real goal and real development will be realized. He further said that Hindi writers to create literature that is easily understood and accepted in all parts of the country. Assimilation of literature of different languages amongst Indian population which has predominantly shared values is very crucial, he added.

The Vice President said that the youth of the country should have connection and interaction with the literary world in order to remain rooted to our cultural heritage and excel in soft power that India has.

The Vice President said that India never attacked any one, it was never an aggressor. He further said that India was always ahead of others in music, medicine and literature. Every Indian born in this country has a hidden talent like weavers, fishermen, and others. Government must encourage the talented youth with programmes like skill development, he added.

Following is the text of Vice President’s address in Hindi:

“1)       एक उत्तम काव्य संग्रह के प्रकाशन के लिए मैं प्रेम नारायण जी और राजपथ प्रकाशन को बधाई देना चाहता हूँ।

2)         इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान से ही हिन्दी कविता का दौर शुरू हो चुका था। 19वीं सदी में, भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी के आधुनिक रूप के पितामह रहे।

3)         आज हिन्दी का कद बहुत ऊंचा हो चुका है। ये सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। आज यह अनेक देशों में बोली जाती है और यह अंतरराष्ट्रीय स्तर की भाषा बन चुकी है।

4)         प्रेम नारायण जी ने हिन्दी कविता में एक नवीन और गहरा प्रयोग किया है। उनके काव्य संग्रह “सामीप्य”, पुस्तक के शीर्षक से ही प्रकट होता है कि लेखक, पाठक को स्वतःअपने करीब लाना चाहता है। प्रेम नारायण जी की यह रचना अद्भुत है। इनकी पुस्तक की प्रस्तावना ही स्वयं एक बेजोड़ कविता है। यह देखकर अच्छा लगा कि प्रेम जी ने पुस्तक में कविता-रूप में मंगलाचरण भी सम्पादित किया है।

पुस्तक का प्रथम शब्द नव और अंतिम शब्द श्रद्धांजलि है। इस रूप में शायद कवि, साहित्य में इस पुस्तक के रूप में, अपने भावों को ही अर्पित कर रहे हैं। ये उनकी नवश्रद्धांजलि ही लगती है।

“कविता” नाम से उनके संकलन की पहली कविता ठीक ही कहती है कि आदमी और कुछ नहीं, सदा अपनी ही खोज में लीन रहता है। इनकी “स्मृति” नाम की कविता आदमी को अपने कर्मों की समीक्षा की दृष्टि देती है। खुद का मूल्यांकन करना सिखाती है। इनकी कविता “कश्ती”,

मुझे लगता है किसी रामभजन से कम नहीं है –

तुम ही मांझी, तुम ही किनारा,

तुम ही कश्ती, तुम ही सहारा,

एक बार मिल जाओ मुझको

मिट जाए सारा अंधियारा।

इनकी सामीप्य कविता सच में बहुत गहरी कविता है। वहां हर पंक्ति में दर्शन झलकता है।

सामीप्य मिटा देता कटुता

वह सबल विचारों में लाता है, सदा सदाशयता।

ये सच ही है, पास रहने, मिलने-जुलने से ही मिठास आता है। रिश्ते बनते हैं। हम यात्रा में किसी अनजाने के बगल में घंटे भर में अच्छे मित्र बन जाते हैं। यहाँ दर्शन में जाएं तो ईश्वर का सामीप्य भक्ति को जगाता है। हम और कुछ न करें सिर्फ मंदिर जाने लगें तो कुछ दिनों में कोई बिल्कुल अनजान या नास्तिक आदमी भी आस्तिक और श्रद्धावान हो जाएगा।

महाकवि भर्तृहरि ने कहा ही है, जो श्रद्धा रखता है उसे ही ज्ञान मिलता है। नारायण जी के इस संकलन की सभी कविताएं बेजोड़ हैं। “अदृश्य रिश्ता” नाम की कविता ठीक ही कहती है, कि हम सब साथ रहते हैं, हमारा सभी का कुछ खास रिश्ता है जो सदा अदृश्य रहता है। हमें उसी रिश्ते को ही तो ढूंढना है। और वो है मानवता का रिश्ता। मानवता की जीत ही बड़े उद्देश्य की प्राप्ति है और मेरे विचार से नारायण जी भी उसी मानवीय चरम विकास की बात कर रहे हैं।

आपकी “प्रतिक्रिया” नाम से कविता भी आदमी को नवीन दिशा, नवीन उमंग ही तो दे रही है।

मेरी शुभकामनाएँ हैं, नारायण जी भविष्य में भी ऐसी ही गहरी कविताएं और साहित्य रचना करें। आदमी का लक्ष्य ऐसा ही होना चाहिए, जैसा नारायण जी कहते हैं –

मैं उड़ चला गगन छूने

मन में तेरा सामीप्य लिए

जो पाना है उसको पाऊँ

ऐसा उर में संकल्प लिए।

प्रत्येक मानव को सदा प्रगतिशील एवं यत्नशील होना ही चाहिए, तभी वास्तविक लक्ष्य और वास्तविक विकास की प्राप्ति होगी।

नारायण जी को मेरा विशेष साधुवाद।“

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