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26 सितम्बर – विश्व मूक तथा बधिर दिवस के अवसर पर हम सभी आपके साथ हैं!

उत्तर प्रदेश

इस धरती पर प्रत्येक मनुष्य का जन्म महान उद्देश्य के लिए हुआ है!

                विश्व मूक (गूंगा) तथा बधिर (बहरा) दिवस हर वर्ष 26 सितम्बर को सारे विश्व में मनाया जाता है। विश्व बधिर संघ (डब्ल्यूएफडी) ने वर्ष 1958 से विश्व बधिर दिवस की शुरूआत की थी। इस दिन मूकों तथा बधिरों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकारों के प्रति लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के साथ-साथ मानव जाति के कल्याण में उनकी उपयोगिता के बारे में ध्यान आकर्षित किया जाता है। इस धरती पर प्रत्येक मनुष्य चाहे वह विशेष हो या सामान्य का जन्म महान उद्देश्य के लिए हुआ है। कुदरत ने हमें एक-एक क्षण करके अनमोल जीवन का उपहार दिया है। किसी व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं है कि कौन सा क्षण उसके जीवन का अंतिम क्षण होगा। हमारा एक दिन में पूरा जीवन जीने का जज्बा होना चाहिए। हमें किसी कार्य को सुन्दर ढंग से इस प्रकार करना चाहिए जैसे यह मेरे जीवन का अन्तिम कार्य तथा अन्तिम दिन हो। उस कार्य में हमें अपनी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक ताकत झोंक देनी चाहिए। जीवन का महान उद्देश्य हर पल अपनी चेतना का विकास करना है। हमारे प्रत्येक कार्य ही ईश्वर अथवा कुदरत की सुन्दर प्रार्थना बने।

                इस लेख के माध्यम से हम कुछ ऐसी विश्वविख्यात हस्तियों का जिक्र करना चाहेंगे जिन्होंने अपनी शारीरिक कमजोरी को अपने जीवन में कुछ विशेष करने की ताकत बना ली। उन्होंने इसके लिए कभी ईश्वर को दोष नहीं दिया वरन् वे अनेक लोगों के लिए सदैव प्रेरणा के स्रोत रहेंगे। सबसे पहले हम प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंस से शुरूआत करना चाहेंगे। असाध्य बीमारी से बेहद विकलांग बन चुके स्टीफन हाकिंस अपनी शिक्षा पीएच.डी. तक पूरा करने की स्थिति में नहीं थे, लेकिन अपनी जिजीविषा के बल पर उन्होंने ब्लैक होल तथा बिग बैंग थ्योरी को समझने में अहम भूमिका अदा की। 1963 में किसी 21 वर्षीय छात्र स्टीफन हाकिंस को दुर्लभ बीमारी हो जाती है जिससे वह चलने-फिरने में पूरी तरह असमर्थ हो जाता है। परंतु अपनी जिजीविषा के बल पर स्टीफन हाकिंस डाक्टरों द्वारा बताए दो सालों से इक्यावन साल अधिक जी कर दुनिया के सर्वकालिक महान वैज्ञानिकों की श्रेणी में स्थान पक्का करा लेते हंै।

                 बीमारी की वजह से पहले तो बैसाखियों के सहारे, फिर आगे चल कर पूरी तरह से व्हीलचेयर में कैद हो जाना पड़ा। धीरे-धीरे शरीर के ज्यादातर अंगों ने काम करना बंद कर दिया। आगे चल कर स्थिति इतनी भयावह हो गई कि उन्हें एक कम्प्यूटर के माध्यम से बात करने के लिए मजबूर होना पड़ा। परंतु इन सारी शारीरिक विकलांगताओं के बावजूद आइंस्टीन के बाद का सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक माने जाने वाले स्टीफन हाकिंग ने अपनी शारीरिक दुर्बलताओं के विषय में बताया था- “लगभग सभी मांसपेशियों से मेरा नियंत्रण खो चुका है और अब मैं अपने गाल की मांसपेशी के जरिए, अपने चश्मे पर लगे सेंसर को कम्प्यूटर से जोड़ कर ही बातचीत करता हूं। कभी भी अपनी मानसिकता को असफलता की ओर मत ले जाइए क्योंकि हमारी सब से बड़ी आशा ही हमारा भविष्य बनती है। उनके खुद के शब्दों में- “हालांकि मैं चल नहीं सकता और कम्प्यूटर के माध्यम से बात करनी पड़ती है लेकिन अपने दिमाग से मैं आजाद हूं।

                स्टीफन हाकिंग को मानव द्वारा किया जा रहा निरंतर पर्यावरण क्षरण, आतंकवाद, परमाणु बमों की होड़ जैसे कार्य उन्हें काफी खलते थे। वे बहुधा कहते थे- “हम अपने लालच और मूर्खता के कारण खुद को नष्ट करने के खतरे में हैं। हम इस छोटे, तेजी से प्रदूषित हो रहे और भीड़ से भरे ग्रह पर अपनी और अंदर की तरफ देखते नहीं रह सकते। हम एक औसत तारे के छोटे से ग्रह पर रहने वाली बंदरों की उन्नत नस्ल हैं लेकिन हम ब्रह्मांड को समझ सकते हैं। ये हमें कुछ खास बनाता है। स्टीफन को उनके योगदानों के कारण अब तक लगभग 12 सम्मानित पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। वे रायल सोसाइटी एवं नेशनल अकादमी आफ साइंस के एक सम्मानित मेम्बर भी थे। 12 अगस्त 2009 को उन्हें अमेरिका का सर्वोच्च सम्मान “स्वतंत्रता का राष्ट्रपति पदक” तत्कालीन राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा के हाथांे प्राप्त हुआ।

                हेलेन केलर 27 जून 1880 को जन्मी एक अमेरिकी लेखक, राजनीतिक कार्यकर्ता और आचार्य थीं। वह कला स्नातक की उपाधि अर्जित करने वाली पहली बधिर और दृष्टिहीन थी। उन्होंने अमेरिकी और दुनिया भर के श्रमिकों और महिलाओं के मताधिकार, श्रम अधिकारों, समाजवाद और कट्टरपंथी शक्तियों के खिलाफ अभियान चलाया। जन्म के समय हेलेन केलर एकदम स्वस्थ थी। उन्नीस महीनों के बाद वो बीमार हो गयी और उस बीमारी में उनकी नजर, जुबान  और सुनने की शक्ति चली गयी। हेलन केलर के माता-पिता के सामने एक चुनौती आ खड़ी हुई कि ऐसा कौन शिक्षक होगा जो हेलेन केलर को अच्छी शिक्षा दे पाए और हेलन केलर समझ पाए। ऐसा इसलिए क्योंकि हेलन केलर सामान्य बच्चों से भिन्न थी। इसके बाद उन्हें आखिरकार एक शिक्षक मिल गया जिनका नाम था एनि सुलिव्हान। इन्होंने हेलन केलर को हर तरीके से शिक्षा दी, जिसमें उन्होंने मेन्युअल अल्फाबेट और ब्रेल लिपी आदि पद्धतियों से शिक्षा देने की कोशिश की।

                हेलेन केलर ने उस दौर में एक ऐसी पुस्तक लिखी जिन्होंने उनको बहुत बड़ी उपलब्धि दिलाई और उस पुस्तक का नाम है ‘‘द स्टोरी आॅफ माय लाइफ‘‘। अपने जीवन में संघर्षो के ऐसे दौर को पार करके हेलेन केलर ने समझ लिया था कि जीवन में यदि संघर्ष किया जाए, तो कोई काम ऐसा नहीं है जिसे हम ना कर सकते हो। यहीं सोच लेकर हेलेन केलर ने समाज के हित के लिए कदम बढ़ाया और वो अपने जैसे लोगों को जागरूक करने निकल पड़ी। हेलेन केलर अपनी यही सोच हर जगह जाकर बताती कि व्यक्ति चाहे शरीर से कितना भी अकुशल हो लेकिन उसे अपने आपको कुशल अपनी कौशल के द्वारा बनाना चाहिए।

                हेलेन केलर का संघर्ष तो बचपन से लेकर पूरे जीवन भर चलता रहा। भले ही आंखों की रोशनी चली गई। लेकिन उन्होंने इस दुनिया के रास्तों को बड़ी गहराई से देख लिया। तभी तो वो उन रास्तों पर चली और अपनी मंजिल तक पहुंच पाई। उन्होंने अपने जीवन के हर वक्त में संघर्ष जारी रखा और जीवन के अंतिम दौर में भी वो समाज के हित के लिए प्रयास करती रही। इसके बाद 1938 में हेलन केलर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। हेलेन केलर इस दुनिया से चली तो गई। लेकिन वो आज भी उन हर शख्स में जिंदा है जो अपने जीवन में ऐसे कष्टों को पाकर भी इस दुनिया में हर मंजिल हासिल करने का जज्बा रखते हैं। हेलेन केलर कई उपलब्धियां हासिल करके गई है, सबसे बड़ी उपलब्धि लोगों से मिली दुआएं और स्नेह है। क्योंकि जिन लोगों को सक्षम बनाने में प्रेरणा के रूप में कार्य किया वो सभी हेलेन केलर को एक बहुत बड़े प्रेरणा स्रोत के रूप में देखते हैं। हेलन का देहान्त 1 जून 1968 को हो गया।

                थामस अल्वा एडिसन का जन्म 11 फरवरी 1847 में अमेरिका के ओहियो शहर के मिलान गाँव में हुआ था। थामस अल्वा एडिसन को एक बच्चे के रूप में औपचारिक शिक्षा काफी कम हासिल हुयी थी। वो स्कूल में केवल तीन महीने गये जो उनकी कुल औपचारिक शिक्षा थी उन्हें पढ़ना-लिखना और गणित उनकी माता द्वारा सिखाया जाता था जो एक स्कूल में अध्यापिका थी। एडिसन के विषय में एक रोचक बात यह है कि उनको स्कूल में यह कहकर निकाल दिया गया था कि एडिसन मंदबुद्धि है। कदाचित उनके बहरेपन की वजह से यह सब किया गया था। थामस अल्वा एडिसन ने एक बार कहा था कि “12 वर्ष की अवस्था के बाद से मैंने किसी भी पक्षी का गाना नही सुना था।

                दृष्टिबाधितों के मसीहा एवं ब्रेल लिपि के आविष्कारक लुई ब्रेल का जन्म फ्रांस के छोटे से गाँव कुप्रे में हुआ था । मध्यम वर्गीय परिवार में जन्में लुई ब्रेल की आँखों की रोशनी महज तीन साल की उम्र में एक हादसे के दौरान नष्ट हो गई थी। बालक लुई बहुत जल्द ही अपनी स्थिति में रम गये थे। बचपन से ही लुई ब्रेल में गजब की क्षमता थी। हर बात को सीखने के प्रति उनकी जिज्ञासा को देखते हुए, चर्च के पादरी ने लुई ब्रेल का दाखिला पेरिस के अंधविद्यालय में करवा दिया। बचपन से ही लुई ब्रेल की अद्भुत प्रतिभा के सभी कायल थे। उन्हांेने विद्यालय में विभिन्न विषयों का अध्ययन किया। कहते हैं ईश्वर ने सभी को इस धरती पर किसी न किसी प्रयोजन हेतु भेजा है।

                लुई ब्रेल की जिन्दगी से तो यही सत्य उजागर होता है कि उनके बचपन के एक्सीडेंट के पीछे ईश्वर का कुछ खास मकसद छुपा हुआ था। 1825 में लुई ब्रेल ने मात्र 16 वर्ष की उम्र में एक ऐसी लिपि का आविष्कार कर दिया जिसे ब्रेल लिपि कहते हैं। इस लिपि के आविष्कार ने दृष्टिबाधित लोगों की शिक्षा में क्रांति ला दी। शिक्षक के रूप में भी वो सभी विद्यार्थियों के प्रिय शिक्षक थे। लुई ब्रेल सजा देकर पढ़ाने में विश्वास नहीं करते थे। उन्हांेने शिक्षा पद्धति को एक नया आयाम दिया तथा स्नेहपूर्ण शिक्षा पद्धति से अनूठी मिसाल कायम की। वो तो एक सन्यासी की तरह अपने कार्य को अंजाम तक पहुँचाने में पूरी निष्ठा से लगे रहे। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि जीवन की दुर्घटनाओं में अक्सर बड़े महत्व के नैतिक पहलू छिपे हुए होते हैं।

                सुनने में अक्षम बधिर श्री मनी राम शर्मा के छोटे से गांव से कलक्टर (आईएएस) बनने तक की कहानी अत्यन्त ही प्रेरणादायी है। बधिर श्री मनी राम ने अपने संकल्प के बल पर आज भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी का दायित्व बड़ी ही जिम्मेदारी के साथ निभा रहे हैं। ऐसे अनेक भारतीय युवा हैं जिन्होंने मूक, बधिर तथा दृष्टिहीन जैसे शारीरिक कमियों को अपने अटूट जज्बे से परास्त करके समाज में विजेता के रूप में अपने को स्थापित किया है।

                मूक-बधिर बेटी गीता सात-आठ साल की उम्र में 2015 पाकिस्तानी रेंजर्स को समझौता एक्सप्रेस में लाहौर रेलवे स्टेशन पर मिली थी। गलती से सरहद पार पहुंचने वाली इस मूक-बधिर लड़की की वापसी भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज के विशेष प्रयासों की वजह से हुई थी। गीता 26 अक्तूबर 2015 को सकुशल स्वदेश लौटी थी। स्व. श्रीमती सुषमा स्वराज जी ने उसके माता-पिता की तलाश करने के भरसक प्रयास करवाये। साथ ही उसके रहने, खाने-पीने आदि की उचित व्यवस्था भी करवायी।

                विशेषज्ञों के अनुसार, बधिर और गूंगे की भाषा सीखने के लिए सांकेतिक भाषा सीखना संभव है। विशेष आनलाइन शब्दकोश इस उद्देश्य के लिए एकदम सही हैं। उद्घोषक शब्द के अनुरूप एक इशारा दिखाता है, और सही अभिव्यक्ति। इसी तरह के शब्दकोश सांकेतिक भाषा सीखने की साइटों पर पाए जा सकते हैं।

                विश्व बधिर संघ (डब्ल्यूएफडी) के आंकड़ों के अनुसार विश्व की करीब 750 करोड़ अरब आबादी में मूक तथा बधिरों की संख्या 80 लाख के आसपास है। इस संख्या का 80 फीसदी विकासशील देशों में पाया जाता है। भारत में आंकड़ों के अनुसार देश की 130 करोड़ आबादी में मूक तथा बधिरों की संख्या 17 लाख के आसपास है। मूक तथा बधिरों की शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति की है। इसके अलावा मूक तथा बधिरों को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की गई है।

                केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय मूक तथा बधिरों के कल्याण के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों को भी दीन दयाल उपाध्याय योजना के तहत सहायता भी मुहैया कराता रहा है। साथ ही मूक तथा बधिरों को नौकरी देने वाली कम्पनियों को छूट का भी प्रावधान है। विशेषज्ञों के अनुसार ध्वनि प्रदूषण के कारण धीरे-धीरे बहरापन महामारी का रूप ले चुका है। कोई प्रत्यक्ष लक्षण न दिखने के कारण इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।

                वर्तमान तकनीकी तथा वैज्ञानिक युग ने इंसान को अनेक सुविधायें उपलब्ध कराई हैं। इण्टरनेट तथा मोबाइल के द्वारा हम घर बैठे अनेक भाषायें, लिपियां, आविष्कार आदि सीख सकते हैं। आवश्यकता है केवल अपनी मौलिक विशेषता को पहचानने की। जिस कार्य को करके हमें आन्तरिक संतुष्टि तथा आनंद प्राप्त हो वहीं हमारी मौलिक विशेषता होती है। हमें जो भी संसाधन तथा जैसा भी शरीर मिला है उसे स्वीकार करना चाहिए। साथ ही उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम सदुपयोग करते हुए जीवन में आगे की ओर बढ़ना चाहिए।

                मानव जाति की यह एक बड़ी त्रासदी है कि वह अपने अंदर के संगीत को अभिव्यक्त किये बिना कब्र में चला जाता है। उपरोक्त महान हस्तियों की साहसिक जीवन यात्रायें हमें अवश्य ही अपनी मौलिक विशेषता रूपी संगीत को अभिव्यक्त करने की प्रेरणा तथा आत्मबल प्रदान करेंगी। मानव जाति सदैव इनके लोक कल्याणकारी कार्यों की ऋणी रहेगी। यह सुन्दर धरती ग्रह जो कि अन्तरिक्ष से देखने पर नीले ग्रह के रूप में और भी सुन्दर दिखाई देता है। इस सुन्दर धरती, इसमें पल रहे जीवन का तथा पर्यावरण का हमें सम्मान करना चाहिए। आज मनुष्य ने अपनी धरती को मानव निर्मित युद्धों तथा प्रदुषण से घायल कर दिया है। आज का महान दिवस हमें गम्भीरता से प्रत्येक मूल्यवान जीवन के बारे में सोचने पर विवश करता है। यह सारी धरती अपनी है, परायी नहीं। सभी में एक जैसा जीवन प्रवाहित हो रहा है।

प्रदीप कुमार सिंह, लेखक
पंजीकृत उ प्र न्यूज फीचर्स एजेन्सी

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