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बाल मजदूरी : भारत का भविष्य अंधकार के आगोश में

देश-विदेश

इंसान के लिए बचपन की यादें उसकी जिन्दगी में सबसे बेहतरीन और यादगार पल के रूप में होती हैं, न किसी बात की फ़िक्र, न ही कोई काम और न ही कोई जिम्मेदारी। बस हर पल हर घड़ी खेलते कूदते रहना, पढ़ना-लिखना, आराम करना और अपनी मस्तियों में खोए रहना और ख़ुशी-ख़ुशी जीना । लेकिन समाज में हर किसी का बचपन ऐसा ही हसीन हो यह जरूरी नहीं, आज भी समाज में एक बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है, जो इन सब बातों से अनभिज्ञ है, जो अपनी दैनिक जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहा है | समाज का यह वर्ग बचपन से ही अपनी आर्थिक-सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है, मुसीबतों से लड़ रहा है | अपनी गरीबी, निर्धनता, लाचारी के कारण मजदूरी करने के लिए बेबस है | हमारे समाज में आज बहुत अधिक संख्या में 14 वर्ष से भी कम उम्र के बच्चे मजदूरी करने के लिए विवश हैं, जिसे हम बाल मजदूरी कहते हैं |
दुनिया के कई देशों में आज भी बच्चों को बचपन नसीब नहीं है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 12 जून बाल मजदूरी के विरोध का दिन है, अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन आईएलओ 2002 से हर साल इसे मना रहा है, लेकिन फिर भी दुनिया भर में बड़ी संख्या में बच्चे मजदूरी कर रहे हैं, इनका आसानी से शोषण हो सकता है | उनसे काम दबा छिपा के करवाया जाता है, वे परिवार से दूर अकेले इस शोषण का शिकार होते हैं, घरों में काम करने वाले बच्चों के साथ बुरा व्यवहार बहुत आम बात है | वैश्विक स्तर पर देखें तो सभी गरीब और विकासशील देशों में बाल मजदूरी बड़ी समस्या बनी हुई है | दुनिया में ऐसे 71 देश हैं जहां बच्चों से मजदूरी करवाई जाती है, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की नई रिपोर्ट में 140 देशों का आंकलन किया गया है | ‘फाइंडिंग्स ऑन द वर्स्ट फॉर्म्स ऑफ चाइल्ड लेबर’ नाम की इस रिपोर्ट में ऐसी 130 चीजों की सूची बनाई गई है जिन्हें बनाने के लिए बच्चों से काम करवाया जाता है | इस रिपोर्ट में बताया गया है कि ईंटें तैयार करने से लेकर मोबाइल फोन के पुर्जे बनाने तक के कई काम बच्चों से लिए जाते है | इसकी मुख्य वजह यही है कि मालिक सस्ता मजदूर चाहता है, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने बाल मजदूरी पर 130 ऐसी चीजों की सूची बनाई है, जिनके निर्माण में बच्चों से काम करवाया जाता है, इस सूची में सबसे ज्यादा बीस उत्पाद भारत में बनाए जाते हैं, इनमें बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईट, जूते, कांच की चूड़ियां, ताले, इत्र, कालीन कढ़ाई, रेशम के कपड़े और  फुटबॉल बनाने जैसे काम शामिल हैं | आईएलओ का कहना है कि दुनिया में एक तिहाई देशों ने अब तक ऐसी सूची बनाई ही नहीं है जिस से वे तय कर सकें कि कौन से काम बच्चों के लिए हानिकारक हो सकते हैं | कई देशों में काम करने की कोई न्यूनतम उम्र तय नहीं की गई है और उन देशों में जहां बाल श्रम के खिलाफ कानून हैं वहां इनका ठीक तरह से पालन नहीं किया जाता, विकासशील देशों में बाल श्रमिकों की संख्या सब से ज्यादा है |
बाल मजदूरी की यह विकराल समस्या भारत में भी विशाल रूप धारण किये हुए है, यह देश में बहुत बड़े पैमाने में फैली हुई है | हमारे देश में तमाम सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों के बावजूद देश में बाल मजदूरी बड़ी चुनौती बनी हुई है, नगरों-महानगरों से लेकर गांव कस्बों तक घरों से लेकर छोटे-बड़े ढाबों, दुकानों और सार्वजनिक संस्थानों में बड़ी संख्या में बच्चों को काम करते देखना आम बात है | बीड़ी उद्योग जैसी जगह में बड़ी संख्या में बच्चे काम कर रहे हैं जो लगातार तंबाकू के संपर्क में रहने से ज्यादातर बच्चों को इसकी लत पड़ जाती है और इससे फेफड़े संबंधी रोगों का खतरा बना रहता है | ऐसे ही बड़े पैमाने पर अवैध रूप से चल रहे पटाखा और माचिस कारखानों में लगभग 50 प्रतिशत बच्चे होते हैं जिन्हें दुर्घटना के साथ-साथ सांस की बीमारी का भी खतरा बना रहता है, इसी तरह से चूड़ी निर्माण में भी बाल मजदूरों का ही पसीना होता है जहां 1000-1800 डिग्री सेल्सियस के तापमान वाली भट्टियों के सामने बिना सुरक्षा इंतजामों के बच्चे काम करते हैं, देश के कालीन उद्योग में भी लाखों बच्चे काम करते हैं, आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कालीन उद्योग में जितने मजदूर काम करते हैं, उनमें से तकरीबन 40 प्रतिशत बाल श्रमिक होते हैं | वस्त्र और हथकरघा खिलौना उद्योग में भी, भारी संख्या में बच्चे खप रहे हैं, पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में लाखों की संख्या में बाल मजदूर काम करते हैं, इनमें से अधिसंख्या का तो कहीं कोई रिकॉर्ड ही नहीं होता, कुछ बारीक काम जैसे रेशम के कपड़े बच्चों के नन्हें नाजुक हाथों से बनवाए जाते हैं | वहीँ हमे कचरे के ढेर से  पन्नी बीनना हो या बूट पालिस की दुकान, ढाबों में बर्तन धोने का काम हो या फिर बसों-ट्रेनों में अश्लील किताबें बेचने के लिए दिन भर बस स्टैण्ड में बोझा उठाने के काम में जुटे भूखे नंगे, अधनंगे बच्चे प्रदेश के प्राय: सभी शहरों और कस्बों में मिल जाएंगे, जिन्हें कानून और समाज ने बाल श्रमिक का नाम दिया है। ये लोग यह काम मजबूरी में करते हैं, भला पेट की आग तो उन्हें बुझाना ही पड़ेगा। भूखे पेट भला बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे और कैसे पढ़ाई करेंगे? सरकार गरीब बच्चों को स्कूलों तक लाने और साक्षरता प्रतिशत बढ़ाने के लिए विशेष अभियान चला रही है। इसके तहत गरीब बच्चों को चिन्हित कर उनका स्कूलों में एडमिशन कराया जा रहा है, लेकिन इस ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता कि ये बच्चे अपने परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए ही इन कामों में जुटे हुए हैं। कोई पन्नी बीनकर अपने भोजन की व्यवस्था करता है, तो कोई ढाबे पर बर्तन मांझकर, तो कोई घरों में झाडू-पौछा करके।
सरकारें लाख बाल श्रम से जुड़े चाहे कितने भी कड़े कानून बना दिए जाएं, लेकिन बच्चों को उनके पेट की आग मजदूरी करने को विवश कर ही देती है। दौर चाहे सामंतों का रहा हो या फिर आज के आजाद देश का, बाल श्रमिक आज भी अमीरों के घरों से लेकर कचरे के ढेरों पर पन्नी बीनते, ढाबों पर काम करते नजर आ जाते हैं। मानवधिकार ही नहीं तमाम सरकारी-गैरसरकारी संगठन जो भी इन्हें अधिकार दिलाने की बात मंचों और समारोहों में करते हैं, उन्हे छोड़ भी दे तो सबसे अहम सवाल पेट के लिये दो वक्त की रोटी का है, जिसकी तलाश में बच्चें बोरी उठाये कचरें में रोजी और रोटी दोनों ही तलाशतें हैं। सार्वजनिक स्थलों पर बूट पलिस की बूट चमकाने में अपने बचपने की धार खो देते हैं । ढावे में साफ सफाई करने से लेकर सब्जी काटने और रोटी परोसने में यही बच्चे लगे रहते हैं । अपना बचपना बर्बाद करने के बाद उन्हें कुल दो जून का खाना भी नहीं मिल पाता है ।
यह स्थिति समाज में बालश्रम की व्यापक स्वीकार्यता को दर्शाती है और यह भी कि समाज में कानून का कोई खौफ नहीं है, सरकारी मशीनरी इसे नजरअंदाज करती नजर आती है,  2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 से 14 साल के बच्चों की आबादी 25.96 करोड़ है |  इनमें से करीब एक करोड़ बच्चे मजदूरी करते हैं, इनमें 5 से 9 साल की उम्र के करीब 25 लाख और 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75 लाख बच्चे शामिल हैं | राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा बाल मजदूर उत्तर प्रदेश (21.76 लाख) में हैं, जबकि दूसरे नम्बर पर बिहार है जहां 10.88 लाख बाल मजदूर हैं, राजस्थान में 8.48 लाख, महाराष्ट्र में 7.28 लाख तथा, मध्यप्रदेश में 7 लाख बाल मजदूर हैं |  यह सरकारी आंकड़े हैं और यह स्थिति तब है जब 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे बाल श्रम की परिभाषा के दायरे में शामिल हैं |
1992 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यह कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था देखते हुए हम बाल मजदूरी को खत्म करने का काम रुक-रुककर करेंगे क्योंकि इसे एकदम से नहीं रोका जा सकता है, लेकिन भारत ने आज तक संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की बाध्यता है, 22 साल बीत जाने के बाद हम बाल मजदूरी तो खत्म नहीं कर पाए हैं | साथ ही इसके विपरीत केंद्रीय कैबिनेट ने बाल श्रम पर रोक लगाने वाले कानून को कुछ नरम बनाने की मंजूरी दे दी है | इसमें सबसे विवादास्पद संशोधन पारिवारिक कारोबार या उद्यमों, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री और स्पोर्ट्स एक्टिविटी में संलग्न 14 साल से कम उम्र के बच्चों को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखने का है |
बिडम्बना देखिये कि पिछले साल ही बाल मजदूरी के खिलाफ उल्लेखनीय काम करने के लिए ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के प्रणोता कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिनका कहना है कि बच्चों से उनके सपने छीन लेने से ज्यादा गम्भीर अपराध और क्या हो सकता है, जब बच्चों को उनके माता-पिता से जुदा कर दिया जाता है, उन्हें स्कूल से हटा दिया जाता है या उन्हें तालीम हासिल करने के लिए स्कूल जाने की इजाजत न देकर कहीं मज़दूरी के लिए मजबूर किया जाता है या सड़कों पर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है, ये सब तो इंसानियत के माथे पर धब्बा है | लेकिन लगता है कैलाश सत्यार्थी की यह आवाज अभी हमारे नीति निर्माताओं के कानों तक नहीं पहुची है, तभी तो कहा जा रहा है कि बच्चों की सेहत और शिक्षा बाधित किये बिना वे घरेलू श्रम में हाथ बंटा सकते हैं, बालश्रम के विरुद्ध लागू कानून में यह संसोधन बाल श्रम और शोषण को सीमित करने के बजाय उसे बढ़ावा ही देगा | अगर चाइल्ड लेबर एक्ट को भी अच्छी तरह से लागू कर दे तो भी बहुत कुछ हो जाएगा लेकिन वो भी नहीं होता, मजदूरी कराने वालों के हिसाब से काम होता है, बच्चों से मजदूरी करवाने की जो सजा है वो बिलकुल सख्त नहीं है, या तो तीन महीने की सजा होगी या फिर 20 हजार का जुर्माना, दोनों में से एक ही सजा मिलती है तो अधिकतर लोग जुर्माना दे कर छूट जाते हैं | फिर ऐसे मामलों की जल्द सुनवाई भी नहीं होती, बच्चे पुनर्वास केंद्रों में फंसे रहते हैं, वहां की हालत कैसी है ये सभी जानते हैं | भारत में बाल मजदूरों की इतनी बड़ी संख्या होने का सबसे बड़ा कारण गरीबी-लाचारी है अगर गरीबी हट जाये तो बाल मजदूरी का अंत संभव है | यदि बाल मजदूरी का अंत किया जाता है तो यह बड़ी उपलब्धि होगी लेकिन इस दिशा में पहला कदम तो उठाया ही जाना चाहिए, मतलब गरीबी दूर की जानी चाहिए । देश में व्याप्त बाल मजदूरी को सामूहिक रूप से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है, क्योंकि यह संतुलित समाज के लिए कलंक है इसे समाप्त करना ही होगा | यदि हमें बेहतर भारत का निर्माण करना है और बच्चों के भविष्य को सुधारना है तो फिर इंतजार मत कीजिए, इस महत्वपूर्ण कार्य को तत्काल शुरू कर दीजिए। बाल मजदूरी की समस्या विकराल है लेकिन कुछ अच्छी कोशिशें भी नजर आ रही हैं, कर्मचारी संघों और नियोक्ता संगठनों के बाल मजदूरी के खिलाफ कदम उठाने के कुछ उदाहरण सामने आ रहे हैं, खासकर ग्रामीण इलाकों में, संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर लिखा है, “तमिलनाडु और मध्यप्रदेश के कर्मचारी संघों में ग्रामीण सदस्य कोशिश कर रहे हैं कि उनका गांव बाल श्रमिकहीन गांव बने, कई लोग बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए एक साथ काम कर रहे हैं”, इसी मुहिम में हमें सभी को जुड़कर एवं आन्दोलन का रूप देकर बाल मजदूरी को जड़ से समाप्त करना होगा ।

सत्यम सिंह बघेल
पटकथा लेखक
ब्यूरो चीफ लखनऊsatyam singh baghel

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