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फ़िल्म समीक्षा: हंसाते-हंसाते बखिया उधेड़ती है ‘हिंदी मीडियम’

हिंदी मीडियमइरफान खान की फिल्म ‘हिंदी मीडियम’ ने अपने दूसरे सफ्ताह भी अच्छी कमाई की
मनोरंजन

कलाकार: इरफान खान, सबा कमर, दीपक डोबरियाल, अमृता सिंह, राजेश शर्मा, नेहा धुपिया, संजय सूरी
निर्देशक: साकेत चौधरीनिर्माता: किशन कुमार, भूषण कुमार, दिनेश विजन
बैनर: टी-सिरीज एवं मैडोक फिल्म्स
संगीत: सचिन-जिगर
गीत: प्रिया सरैया एवं कुमार

स्टार 3

‘भारत में अंग्रेजी एक भाषा नहीं, क्लास है।’ और इस क्लास में पहुंचने के लिए हर क्लास, खासकर हिंदी मीडियम वाला मिडिल क्लास कुछ भी करने को तैयार रहता है। विडंबना है कि अंग्रेजी को गरियाने वाला क्लास दिन-रात इस क्लास में पहुंचने की जुगत में लगा रहता है। आप किसी भी भाषा में पारंगत है, लेकिन आपको अंग्रेजी नहीं आती तो आपका ज्ञान व्यर्थ है। आप अपनी योग्यता और कड़ी मेहनत की बदौलत अच्छा-खासा कमाते-खाते हैं, लेकिन आपको अंग्रेजी नहीं आती तो सब बेकार। इरफान खान और सबा कमर स्टारर ‘हिंदी मीडियम’ इसी गंभीर मुद्दे को बड़े मनोरंजक अंदाज में पेश करती है।

कुछ ऐसी है कहानी

राज बत्रा (इरफान खान) की चांदनी चौक में गारमेंट की बड़ी दुकान है, जहां वह प्रसिद्ध ड्रेस डिजाइनरों के डिजाइन किए किए हुए परिधानों की कॉपी बेचता है। वह अपने काम और माहौल से खुश है, लेकिन उसकी पत्नी मीता (सबा कमर) अपनी बेटी पिया (दीशिता सहगल) के भविष्य को लेकर काफी आशंकित रहती है। उसे लगता है कि उसकी बेटी का दाखिला अगर दिल्ली के टॉप इंग्लिश मीडियम स्कूल में नहीं हुआ तो वह अच्छी अंग्रेजी नहीं सीख पाएगी और अपने हमउम्र बच्चों से पिछड़ जाएगी। इससे उसके मन में हीन भावना आ जाएगी, वह डिप्रेस हो जाएगी और ड्रग्स की शरण में चली जाएगी। इसीलिए वह किसी भी तरह अपनी बेटी का दाखिला दिल्ली के टॉप स्कूल ‘दिल्ली ग्रामर स्कूल’ या ‘प्रकृति स्कूल’ में कराना चाहती है। चूंकि ये स्कूल सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी के अंदर रहने वाले बच्चों को एडमिशन देते हैं, इसलिए वह अपने पति पर दबाव डाल कर चांदनी चौक से पॉश इलाके वसंत विहार में शिफ्ट हो जाती है।

बेटी का एडमिशन बड़े स्कूल में हो जाए, इसलिए राज और मीता कंसलटेंट के यहां अपनी बेटी को ट्रेनिंग दिलवाते हैं और कंसलटेंट की सलाह पर खुद भी ट्रेनिंग लेते हैं। हर उपाय करने के बावजूद जब पिया का एडमिशन नहीं हो पाता तो कंसल्टेंट उन्हें ‘आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग’ के कोटे से फॉर्म भरने की सलाह देती है, जिसे राज थोड़ी हिचकिचाहट के बाद मान लेता है। इसके लिए वह एक दलाल की मदद लेता है। बाद में इस मीडिया इस घोटाले का खुलासा कर देती है। जांच कमिटी बिठा दी जाती है और खुद को गरीब साबित करने के लिए राज-मीता गरीबों के एक मुहल्ले भारत नगर में शिफ्ट हो जाते हैं। वहां उन्हें शाम प्रकाश (दीपक डोबरियाल) मिलता है, जो उनकी काफी मदद करता है…

यह फिल्म बड़े व मझोले शहरों और महानगरों में अपने बच्चों के अच्छे स्कूल में दाखिले के लिए हलकान लोगों की मानसिकता को बड़े प्रामाणिक रूप से पेश करती है। दर्शक इससे खुद को जुड़ा महसूस करता है। यह फिल्म दिल्ली की पृष्ठभूमि में है, लेकिन पूरे देश की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। ‘अच्छे स्कूल’ में बच्चों के एडमिशन को लेकर अभिभावकों की चिंता किस पागलपन का रूप अख्तियार कर लेती है, फिल्म इसे बड़े रोचक अंदाज में दर्शकों के सामने लाती है। सरकारी स्कूलों की दिन-ब-दिन खस्ता होती जा रही हालत और प्राइवेट स्कूलों द्वारा शिक्षा को व्यवसाय बना देने पर भी यह फिल्म तीखा कटाक्ष करती है। साथ ही यह भी बताती है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में प्रतिभा की कमी नहीं होती, बस उन्हें अवसर नहीं मिल पाते।

पहले हाफ में फिल्म ज्यादा मजेदार है। इसमें निर्देशक साकेत चौधरी बड़े प्राइवेट स्कूलों में एडमिशन की जद्दोजहद, तिकड़मों और घोटालों पर ही ध्यान केंद्रित रखते हैं। लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म का फोकस थोड़ा हट कर, अमीरों बनाम गरीबों की मानसिकता पर चला जाता है। गरीबों की जिंदगी कैसी और कितनी संघर्ष भरी होती है, दूसरे हाफ में इसे अच्छी तरह से दिखाया गया है। अमीर जब गरीबी का चोला ओढ़ने की कोशिश करते हैं तो वे किन जटिलताओं से रूबरू होते हैं, इसका चित्रण भी मजेदार है। पहले हाफ में जहां फिल्म हंसते-हंसाते समस्या पर चोट करती है, वहीं दूसरे हाफ में इमोशनल दृश्य ज्यादा हैं। हालांकि हास्य और व्यंग्य इसमें भी मौजूद है, लेकिन पहले के मुकाबले कम। खैर, अंत में फिल्म फिर अपने मूल मुद्दे पर लौटती है। फिल्म का क्लाईमैक्स आदर्शवादी है, लेकिन लगता है कि इसके अलावा निर्देशक के पास कोई चारा भी नहीं था। अगर वो यथार्थवादी रवैया अपनाते तो शायद फिल्म का मूल संदेश निस्तेज हो जाता।

अगर उनकी पिछली दोनों फिल्मों ‘प्यार के साइड इफेक्ट्स’ और ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’ पर नजर डालें तो साकेत चौधरी ने खुद को एक ऐसे निर्देशक के रूप में स्थापित किया है, जिनकी फिल्मों में एक अलग तरह का ‘विट’ होता है। साकेत ‘हिंदी मीडियम’ में एक पायदान और ऊपर चढ़े हैं। उन्होंने फिल्म में दिल्ली के महौल को बहुत अच्छे से स्थापित किया है। फिल्म के डायलॉग शानदार पंच के साथ खूब हंसाने वाले हैं और वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था के सूरते-हाल और लोगों की मानसिकता को बेहतरीन अंदाज में व्यक्त करते हैं। इसके लिए अमितोष नागपाल प्रशंसा के पात्र हैं। इसमें थोड़ा भी संशय नहीं है कि इरफान के अभिनय के साथ संवाद भी इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत हैं। पटकथा में हल्की-फुल्की कमियां हैं, लेकिन साकेत ने फिल्म को इतनी बढ़िया तरीके से पेश किया है कि उन कमियों की वजह से मजा किरकिरा नहीं होता। फिल्म का संगीत साधारण है।

कुछ फिल्मों को देख कर ऐसा लगता है कि उन्हें इरफान के अलावा और कोई नहीं कर सकता। ‘हिंदी मीडियम’ भी ऐसी ही एक फिल्म लगती है। संजीदा किरदारों में तो वे बेजोड़ है हीं, उनकी कॉमिक टाइमिंग भी लाजवाब है। अपनी डायलॉग डिलीवरी के सहज और अनूठे अंदाज से वह संवादों का मजा कई गुणा बढ़ा देते हैं। पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर ज्यादातर हमवतन अभिनेत्रियों की तरह फिल्म में सिर्फ शोपीस की तरह नहीं हैं। उनका किरदार काफी अहम है। वह खूबसूरत लगी हैं और किरदार को भी अच्छे से निबाहा है, खासकर दिल्ली के लहजे को उन्होंने बड़ी सहजता से पकड़ा है। दीपक डोबरियाल ऐसे कलाकार हैं, जो मिले हुए मौके को कभी छोड़ते नहीं। शामप्रकाश के रूप में उनका अभिनय शानदार है। फिल्म के बाकी कलाकारों का अभिनय भी अच्छा है। राजेश शर्मा, संजय सूरी और नेहा धुपिया बस एक-दो सीन में नजर आए हैं। उनके करने के लिए इस फिल्म में कुछ खास था नहीं। कुल मिला कर यह एक शानदार फिल्म है, जिसे जरूर देखना चाहिए।

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