31 C
Lucknow
Online Latest News Hindi News , Bollywood News

उत्तराखण्ड पलायन का बढ़ता गया मर्ज

उत्तराखण्ड पलायन का बढ़ता गया मर्ज
उत्तराखंड

देहरादून: ज्यों-ज्यों दवा की गई त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया। यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है उत्तराखंड के पलायन पर। हालांकि पलायन पूरे देश की नहीं विश्व की समस्या है, लेकिन तमाम दावों के बावजूद उत्तराखंड पलायन से मुक्ति नहीं पा रहा है। लगातार बढ़ता पलायन इस बात का संकेत है कि कहीं न कहीं व्यवस्थागत खामियां पलायन को और बढ़ा रही हैं। उत्तराखंड के 13 जनपदों में तहसीलें उपतहसीलें बढ़ी,लेकिन विकासखंड आज भी वहीं के वहीं हैं। 9 नवंबर को 2000 को अस्तित्व में आए उत्तराखंड का कुल क्षेत्रपफल 53 हजार 483 वर्ग किलोमीटर है,जबकि राज्य का कु ल वन क्षेत्र 38 हजार वर्ग किलोमीटर है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन और नेपाल से लगने वाला उत्तराखंड पलायन का दंश झेल रहा है।

उत्तराखंड की अन्तर प्रादेशिक सीमाएं उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश से लगती हैं। राज्य बनने के बाद भी उत्तराखंड में गैर आबाद गांवों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो पलायन की कथा से कम नहीं है। प्रदेश के कुल 16 हजार 7 सौ 93 गांव में से लगभग 4 सौ के आसपास के गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं शेष गांवों में यदि 25 परिवार रहते हैं तो गांव में केवल 10-15 परिवार ही रहते हैं, उनमें भी घर के बड़े बुजुर्ग, विशेषकर महिलाएं ही पहाड़ में बचीं हैं। शेष लोग मैदानों की ओर उतर चुके हैं। जिसके कारण पहाड़ में अराजक तत्वों का जमावड़ा हो रहा है। पहले भेड़ पालक जो जाड़ों में नीचे आते थे और गर्मियों में ऊपर चले जाते थे। एक तरह से सीमा सुरक्षा का काम करते थे। इन चरवाहों से गुप्तचर जानकारियां मिलती थी,लेनिक पलायन का दंश इन पर भी पड़ा है और यह लोग भी अब पलायन की शिकार हो रहे हैं।

उत्तराखंड में शासन करने वाली हर राजनैतिक पार्टी पहाड़ से पलायन जैसी गंभीर समस्या को उठाती तो हैं,लेकिन सत्ता में आने के बाद उसे भूल जाती है। राजधानी देहरादून के बाद अगला जिला टिहरी है। जहां से पलायन खूब बढ़ा है। अकेले टिहरी जनपद के किरासू गांव में 15 परिवार रहते थे,लेकिन 8 परिवार वहां से पलायन कर चुके हैं। भले ही यह पलायन रोजी-रोटी स्वास्थ्य तथा सुविधाओं को लेकर हो,लेकिन पहाड़ से लगातार बढ़ता पलायन इस बात का संकेत है कि कहीं न कहीं पलायन के प्रति सत्ता सजग नहीं है। ऐसा नहीं है कि अधिसंख्य खंडहर उत्तराखंड की गरीबी,भुखमरी, बेरोजगारी और प्राकृतिक आपदाएं पलायन का कारण हैं। सच तो यह है कि पलायन इतनी बढ़ी महामारी बन गया है कि नौकरशाह ही नहीं राजनेता और जनप्रतिनिधि भी पलायन करने लगे हैं। चाहे कुमाऊं हो अथवा गढ़वाल, कुमाऊं के राजनेताओं ने अपने आवास के लिए हल्द्वानी को चुना है तो गढ़वाल के नेताओं ने अपने पलायन का केन्द्र देहरादून का माना है।

पहाड़ के लगभग सभी वरिष्ठ नेताओं के आवास देहरादून में है। वे चाहे भाजपा के नेता हों या कांग्रेस के कोई भी पहाड़ से जनप्रतिनिधि बनकर फिर वहां नहीं रूकना चाहता। अपवाद स्वरूप लोगों में पूर्व आई.ए.एस. स्व. डा. आर.एस. टोलिया का नाम गिना जा सकता है। जिन्होंने अपने ही क्षेत्र को अपनाया। ऐसे ही लोगों में केदार सिंह फोनिया तथा उनके पुत्र विनोद फोनिया का नाम शामिल है। जिन्होंने देहरादून के बजाय अपने ही क्षेत्र को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। अन्य नौकरशाह और राजनेता सभी पलायन कर चुके हैं। इसका उदाहरण इस बात से लिया जा सकता है कि प्रदेश मुख्यमंत्री हरीश रावत स्वयं किच्छा और हरिद्वार देहात से चुनाव लड़ा है हार जीत का पफैसला भले ही बाद में होगा,लेकिन इसे पलायन ही कहेंगे कि उन्होंने अपने क्षेत्र को छोडकर मैदान को अपना ठिकाना बनाया है। यही स्थिति पहाड़ के अन्य नेताओं की भी है। नेता भले ही पहाड़ के हों, लेकिन उन्होंने अपना ठिकाना मैदान ही बनाया है। ठेठ मैदानी सीट कहे जाने वाले क्षेत्रों से पहाड़ के नेता चुनाव लड़ रहे हैं जिसके कारण मैदान के नेताओं में कापफी तीखी प्रतिक्रिया भी है,लेकिन दलीय अनुशासन तथा व्यवस्थाओं के कारण लोग चुप हैं। पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है। वह है कम सुगम गांवों और कस्बों से बड़े शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी,कोटद्वार,देहरादून,रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन।

मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवा निवृत्त के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं। स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है उससे अधिक कहीं चिंताजनक है,जो गांव शहरों से 4.5 किलोमीटर या अधिक दूरी पर हैं उनमें से अधिकांश खाली होने की कगार पर हैं। समाजसेवी आलोक भटृ मानते हैं कि पलायन के पीछे सरकार क ी नाकामयाबी है। श्री भट्ट का कहना है कि सुविधाएं न होने के कारण पहाड़ पूरी तरह पहाड़ जैसे होते जा रहे हैं। सडकों और रेलवे क ी कमी के कारण वहां के उत्पाद भी समय से शहरों तक नहीं पहुंच पाते। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ऐसे में जन सुविधाओं के लिए पहाड़ के यह चैकीदार मैदानों की ओर आ रहे हैं। आलोक भटृ का कहना है कि यदि सरकार पहाड़ों के विकास की ठान ले और गांवों में ही मूलभूत सुविधाएं मिल जाएं तो कोई अपना घर क्यों छोड़ेगा,लेकिन जीवन यापन के लिए व्यक्ति को मजबूरन पलायन करना पड़ता है। समाजवादी पार्टी के युवा नेता एवं कार्यक्रम समन्वयक आलोक राय मानते हैं कि यदि सरकारों में पहाड़ पर समुचित ध्यान दिया होता तो आज यह स्थिति न आती। उनका कहना है कि पलायन आज बड़ी समस्या है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता,लेकिन पलायन का दोष केवल एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। यह निश्चित है कि पहाड़ों के साथ भेदभाव हुआ है और पहाड़ के नेताओं ने भी अपने क ो केवल चुनाव तक ही क्षेत्रों से जोड़े रखा। उसके बाद उन्होंने मैदान का रूख किया। इसके एक नहीं दर्जनों उदाहरण हैं। भाजपा के तथा कांग्रेस सभी प्रमुख एवं वरिष्ठ नेता आज मैदानों में हैं। यदि नेता ही पलायन कर गए हैं,तो जनता के सामने मजबूरी है,जिसके कारण वह भी पलायन को विवश है। इसका एक मात्र समाधान पहाड़ तक विकास की समुचित किरणें पहुंचाना होगा।

Related posts

Leave a Comment

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More